December 22, 2024

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महात्मा गांधी जी की 151वीं जयंती: गांधीजी के बारे में 7 गलतफहमियां:-

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दुनियाभर में भारत को बापू की वजह से जाना जाता रहा है। सत्य और अहिंसा के जो महान आदर्श उन्होंने कायम किए उनकी जरूरत आज भी उतनी ही बनी हुई है, फिर भी महात्मा के जीवन और काम को समझने की जद्दोजहद आज तक खत्म नहीं हुई। लिहाजा कई लोग समय-समय पर सवाल उठाते रहते हैं और गलतफहमियां बनी रहती हैं। यहां देश के कुछ जाने-माने गांधीवादी विचारकों ने उन सवालों का जवाब दिया है|

 

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जिस वक्त (वर्ष 1946) गांधी नोआखली में सांप्रदायिक सद्भाव बनाने की कोशिश कर रहे थे, उस समय उनके आसपास रहने वाले तमाम बड़े राजनीतिक चेहरे दिल्ली में लॉर्ड माउंटबेटन के साथ बैठकर भारत की आजादी को अंजाम देने में लगे थे। गांधी जब तक दिल्ली लौटते हैं, माउंटबेटन ने आजादी के साथ-साथ देश के बंटवारे की सारी गोटियां बैठा दी थीं। गांधी को आभास तो था कि उनकी पीठ पीछे कुछ हुआ है, क्योंकि अब सरदार, जवाहर और मौलाना तीनों का व्यवहार कुछ बदल गया है। कोई उनसे खुलकर कुछ नहीं बताता। साम्राज्यवाद की किलाबंदी पूरी हो चुकी थी और यहां गांधी की जरूरत किसी को नहीं थी। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच बंटवारे की सहमति बन चुकी है, जिसपर कांग्रेस की ओर से मौलाना, लीग की ओर से जिन्ना और अंग्रेजों की ओर से माउंटबेटेन साइन करते हैं। इसके बावजूद गांधी विभाजन को रोकने की कोशिश में हार नहीं मानते। गांधी माउंटबेटन से मुलाकात कर कहते हैं कि आप लोगों ने जो भी तय किया है वह ठीक है, लेकिन मेरा सिर्फ इतना निवेदन है कि आप इस काम में जल्दबाजी न करें। माउंटबेटन गांधी को जवाब देते हैं कि मैं किसी जल्दबाजी में नहीं हूं, मुझे एक कैलेंडर दिया गया है, जिसके भीतर मुझे काम करना है। इसके बाद गांधी जिन्ना से मिलते हैं और कहते हैं कि तुम किस बात के लिए परेशान हो रहे हो, तुम पाकिस्तान चाहते हो, वह तुम्हें मिल जाएगा।

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लेकिन पहले इन अंग्रेजों को बाहर जाने दो। इन्हें बीच में मत डालो। जिन्ना का जवाब होता है कि अंग्रेज हैं तभी तो मेरे पाकिस्तान की गारंटी है। वे चले गए तो पता नहीं आप लोग क्या करेंगे। गांधी अब पटेल और जवाहर से मिलते हैं और उनसे कहते हैं कि विभाजन रोकने का एक अच्छा विचार मेरे पास है कि तुम लोग जाकर माउंटबेटेन से कहो कि आप भारत की आजादी का ऐलान कीजिए और देश की बागडोर जिन्ना को दे दीजिए। तुम दोनों जिन्ना से कहो कि आप पीएम बन जाइए, हम आपका समर्थन करेंगे। इस पर सरदार गांधी से कहते हैं – बापू आप कह रहे हैं तो हम आपकी बात नहीं काटेंगे। लेकिन यह बात देश को आपको बतानी होगी। उसके बाद देश में जो विद्रोह होगा, उसका मुकाबला हम नहीं कर पाएंगे। यह काम आपको खुद करना होगा। तब गांधी नए-नए बने अपने उन समाजवादी शिष्यों राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी की ओर देखते हैं, जो कांग्रेसी विचारधारा के विरोधी होने के बावजूद आजादी की इस लड़ाई के चलते उनके करीब आए थे। गांधी उनसे कहते हैं कि अगर आप लोग मेरा साथ दें तो मैं जान की बाजी लगा सकता हूं, लेकिन वहां से भी उन्हें कोई सहयोग नहीं मिलता। अब गांधी के सामने विभाजन को रोकने का कोई विकल्प नहीं था।

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बंटवारे के बाद भी गांधी ने दोनों देशों के बीच इस बंटवारे को रोकने की कोशिश की। गांधी का कहना था कि वह बिना वीजा और पासपोर्ट के पाकिस्तान जाएंगे, जिससे वह भारत पाक विभाजन की वैधानिकता और राजनीतिक सीमा को तोड़ सकें। उनकी सोच थी कि दोनों देश अपनी-अपनी जगह रहें, लेकिन दोनों देशों के लोग बिना किसी रोक-टोक के एक दूसरे के यहां आ-जा सकें। इस सिलसिले में उन्होंने अपने दो विश्वसनीय सहयोगियों को जिन्ना से मिलने पाकिस्तान भेजा, लेकिन इससे पहले कि वे दोनों लोग जिन्ना का संदेश लेकर लौट पाते, गांधी की हत्या हो जाती है और गांधी की इच्छा अधूरी रह जाती है।

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महिलाओं से गांधी जी के संबंध क्या अनैतिक माने जाते थे –

जिन लोगों को ब्रह्मचर्य के प्रयोग के तौर पर गांधी के महिलाओं से संबंध अनैतिक लगते हैं, वे लोग महात्मा गांधी के गहराई से अध्ययन और चिंतन से दूर हैं। महात्मा गांधी ने सत्य के प्रयोग के लिए तमाम टेस्ट किए और उन्हीं में से एक ब्रह्मचर्य के पालन का विषय भी शामिल था। इसी क्रम में महिलाओं के साथ गांधी रहे लेकिन उनके संबंध कभी भी अनैतिक नहीं कहे जा सकते। इस विषय पर कुछ लोग हमेशा से भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। गांधी यूं ही महात्मा नहीं थे। उनकी जिंदगी खुली किताब है। वह कहते थे कि उनकी जिंदगी ही लोगों के लिए संदेश है। ब्रह्मचर्य का उन्होंने प्रयोग किया था और इसके लिए 2-3 महिलाओं से संबंध की बातें चर्चा में आती हैं। गांधी ने ब्रह्मचर्य के लिए प्रतिज्ञा ली थी और वो देखना चाहते थे कि वह इसमें कितने खरे उतरते हैं। कुछ लोगों को ये बात उस दौर में और इस दौर में खटकती होगी कि कैसे वह सामाजिक मान्यताओं से आगे जाकर महिलाओं के साथ संबंध में रहे। दरअसल आम धारणा के हिसाब से महिलाओं के लिए एक सीमा तय कर दी गई है। ऐसे में कोई इस सीमा को कैसे लांघ सकता है? ये सवाल लोगों के मन में उठता होगा। गांधी ने प्रयोग किया था, इसके लिए किसी पर कोई दबाव नहीं था। इस दौरान किसी से कोई ऐसा संबंध नहीं था, जो अनैतिक करार दे दिया जाए। गांधी ब्रह्मचर्य के प्रयोग के लिए ऐसी स्थिति में रहे और उन्होंने इसका संदेश दिया|

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सवाल ये उठता है कि ब्रह्मचर्य के बारे में जो प्रयोग गांधी ने किए, इस बारे में लोगों को कहां से पता चला? क्या लोगों के पास कोई अलग से जानकारी आई? नहीं ऐसा नहीं था। इस बारे में भी गांधी ने जो लिखा है, उसी को लोगों ने पढ़ा। गांधी ने अपने जीवन के बारे में सबकुछ लिखा और वह लोगों के सामने है। उसकी अब गलत तरीके से व्याख्या की जा रही है। इस तरह के सवाल उठाना कि महिलाओं से गांधी के संबंध अनैतिक थे, ये बेकार की बातें हैं और सच्चाई से इसका कोई लेना-देना नहीं है। उनकी पूरी जिंदगी संदेश से भरी हुई है और सही मायने में उनकी जिंदगी खुली किताब है। गांधी से 2-3 महिलाओं के संबंध का मतलब ये नहीं है कि उनके कोई नजदीकी संबंध थे। साथ ही जो भी महिलाएं गांधी के साथ थीं, वह अपनी मर्जी से थीं। इसे अनैतिकता जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर विरोधी परिभाषित कर रहे हैं। गांधी के किसी महिला से कोई अनैतिक संबंध नहीं थे। उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोग को कुछ लोग गलत तरीके से पेश करते हैं, जबकि उनका जीवन सबके सामने है। वह जीवन ही संदेश है।

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बिना महात्मा गाँधी जी के देश की आजादी मुमकिन थी:-

दुनिया के गुलाम देशों की आजादी का इतिहास जानने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह स्वीकारना कठिन नहीं होगा कि भारत में अगर गांधी नहीं होते तो भी ब्रिटिश राज सदा सर्वदा के लिए टिक सकता था। राष्ट्रीय स्वतंत्रता की लड़ाई भारत में गांधी के 1915 से सक्रिय होने के आधी शताब्दी पहले से चल रही थी। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि गांधी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को तीन विशिष्ट गुणों से अनोखा बनाया था। पहला- गांधी ने स्वराज को सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह की तार्किक परिणीति के रूप में न सिर्फ प्रचारित किया बल्कि कठिन मौकों पर अलोकप्रिय निर्णय लेकर अहिंसा और सत्याग्रह के मूल को गांव-गांव तक स्थापित किया। इससे जनसाधारण का स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान करना सहज हो गया। दूसरा- गांधी ने स्वराज की राजनीतिक और सामाजिक परिभाषा के बीच के पुराने द्वंद को लगभग खत्म किया। आर्थिक, नैतिक, राजनीतिक और सामाजिक स्वराज को एक ही भवन के चार स्तंभ के रूप में प्रचारित किया। रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिए आम लोगों के बीच में एक जीवनशैली के रूप में और सांस्कृतिक क्रांति के रूप में स्थापित किया। तीसरा- गांधी ने अपनी कथनी और करनी में एकता, निजी और सार्वजनिक जीवन की एकरूपता के जरिए आश्रमों से शुरू करके जनआंदोलन तक हिंदू-मुस्लिम दूरी, छुआछूत की बीमारी और औरतों को सार्वजनिक भूमिकाओं से दूर रखने की मर्दवादी परंपरा का विमूलन किया। अब अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी का नेतृत्व एक प्रकार से अहिंसक और नैतिक आधारों पर भारतीय समाज और राष्ट्रीयता के नवनिर्माण की कोशिश थी।

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यह स्वाभाविक है कि गांधी ने जिन लक्ष्यों को स्थापित किया, उनमें से कई प्रसंगों में आधा-अधूरापन रहा। जैसे हिंदू-मुस्लिम अलगाववाद की ताकतों ने ब्रिटिश शासकों की मदद से गांधी की आंख के आगे ही भारत का बंटवारा करा दिया। लेकिन स्वराज की जो दिशा देश ने गांधी के तीन दशकों के प्रयास से पहचानी और स्वीकारी, वह भारत की जिम्मेदारी बन गया। इसी प्रकार बहुआयामी राष्ट्रीयता के लिए गांधी द्वारा अपनाई गई भाषा नीति, सर्वधर्म समभाव नीति, ग्राम स्वराज का आदर्श, नर-नारी समता की महत्ता, दलितों-गैर दलितों के बीच की युगों की दूरी को खत्म करना, समूचे राष्ट्र और संविधान का मार्गदर्शक बना। इसलिए आज भी अन्य नव-स्वाधीन राष्ट्रों की तुलना में भारत की राष्ट्रीय एकता, लोकतांत्रित व्यवस्था और अंतिम व्यक्ति के कल्याण के लिए प्रतिबद्धता के संदर्भ में हम एक बेहतर राष्ट्र हैं।

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पश्चिमी टेक्नॉलजी या पश्चिमी बाजार का जब महात्मा गांधी विरोध करते थे, उसे पिछड़ी सोच की निशानी नहीं कहा जा सकता। इस विरोध के पीछे गांधी की अपनी सोच और दूरगामी योजना थी। गांधी के लिए स्वराज और आजादी का मतलब सिर्फ मानचित्र पर एक अलग मुल्क का होना भर नहीं था। वह चाहते थे देश भी आजाद हो और देश के लोगों की सोच भी आजाद हो। इसी एप्रोच को बल प्रदान के लिए वह ग्रामोद्योग को बढ़ावा देने, देश के अंदर बने उत्पाद को जयादा से ज्यादा बढ़ावा देने की बात करते थे। इस नजरिये से पश्चिम चीजों का विरोध जरूरी था। 1909 में गांधी की लिखी किताब को पढ़े तो हमें उनकी सोच का विस्तार दिखता है। उनका पश्चिमी तकनीकों के खिलाफ सत्याग्रह था। उनकी सोच थी कि अगर हम पश्चिम तकनीकों और बाजार से जुड़े रहेंगे तो फिर लोगों को अपनी अहमियत और मौलिकता का आभास नहीं होगा, जो किसी भी स्वतंत्र समाज के लिए पहली जरूरत होती है। यही कारण है कि जब आजाद हुए तो यह सिर्फ एक मुल्क की आजादी नहीं थी, बल्कि चंद सालों में ही विश्व के सबसे वाइब्रेंट समाज और गणतंत्र भी बने। दूसरों के लिए यह एक मिसाल थी। विविधता को एक में समाहित कर उसे अपनी ताकत बनाया। यह तभी संभव हुआ जब गांधी ने लोगों को पश्चिमी तकनीक और उनकी अपनी संस्कृति से अलग कर देश और समाज को खुद से हस्ताक्षर कराया। यहां भी कहना जरूरी होता है कि जब गांधी उनका विरोध करते थे तब वह उनसे नफरत नहीं करते थे और न उन्हें खारिज करते थे। वह कहते थे हमारे लिए वह न जरूरी है न प्रासंगिक। अंग्रेजों की एक साजिश भी थी कि वह हमें मशीनों पर इस तरह निर्भर करें जिससे हम कभी उबर नहीं पाए। हमारे हुनर और कारोबार को समाप्त कर दिया गया था। गांधी ने इस चुनौती को पहले ही भांप लिया। उन्होंने लोगों के बीच पश्चिमी तकनीक के विरोध को अस्मिता से जोड़ा। लोगों में राष्ट्रीय भावना को जगाया। गांधी का यह भी मानना था कि मशीन इंसान के सोच को नियंत्रित करती है।

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एक सीमा में बांधती है। वह मशीन पर निर्भरता को खुली सोच में सबसे बड़ी बाधा भी मानते थे। ऐसी सोच के पीछे उनका अपना आधार है और मैं मानता हूं कि इसके लिए तब उनके पास पुख्ता आधार थे। हां यह सही है कि तब उनके इस विचार, खासकर तकनीक के खिलाफत वाले स्टैंड से देश के अंदर और बाहर कई लोग सहमत नहीं होते थे। कुछ लोग उसे पिछड़ेपन या अपरिपक्व बात भी कह देते थे। गांधी ने उन आलोचनाओं का भी सम्मान किया। लेकिन आज की तारीख में हम पीछे मुड़ कर देखें तो यह बहुत ही प्रोगेसिव और वक्त से आगे की सोच लगती है।

सुरेश कुमार ‘हज्जू’ (बिहार के प्रसिद्ध रंगकर्मी। पिछले साल सुर्खियों में तब आए थे जब गांधी के भेष में पटना से चंपारण तक पैदल मार्च किया था।)
मैंने दोनों रंग देखे हैं। दोनों के असर और प्रभाव को भी नजदीक से देखा है। हिंसक आंदोलन पल भर के लिए प्रभाव डाल सकते हैं, अपनी छाप छोड़ सकते हैं लेकिन अहिंसक आंदोलन धीरे ही सही, स्थायी प्रभाव डालते हैं। गांधी, राम के बाद सबसे बड़े आराध्य हैं और इसे मैंने खुद से महसूस किया है। ऐसा नहीं है कि गांधी मेरे जीवन में शुरू से थे। मैं शुरूआत में हिंसक विचारों से प्रभावित था। हिंसा मेरे स्वभाव का हिस्सा थी। ‘पहले लात, फिर बात’ के फलसफे में विश्वास करता था। मेरी छवि एक गुंडे की थी। लोग डरते थे। डर के कारण ही लोग नजदीक आते थे। यही मेरी पहचान थी। लेकिन तभी 1990 में मेरी जिंदगी में गांधी आए जब मैं पहली बार एक नाटक में गांधी बनकर उनकी विचारधारा से रूबरू हुआ।

एक नाटक में गांधी का किरदार निभाने वाला कोई कलाकार नहीं मिल रहा था और मुझे मौका मिला। मैं अनमने ढंग से इस भूमिका को निभाने पर हामी भरी। यह जीवन में नया मोड़ लाने वाला साबित हुआ। इसके बाद मेरे जीवन का हिस्सा बन गए गांधी। मैंने अपनी जिंदगी और विचारों में गांधी के अहिंसा को अपनी जिंदगी में आत्मसात किया। आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो चाहने वालों का कारवां तैयार हो गया है। यह अहिंसक आंदोलन की जीत है। मैं रंगमंच से जुड़ा रहा और गांधी मेरे लिए नायक बने रहे। मैंने पिछले 30 साल में 105 बार गांधी की भूमिका करने के लिए अपने बाल मुंडाए। कहने को विग लगाकर भी मैं भूमिका निभा सकता था लेकिन गांधी की भूमिका करते हुए उन्हें हर वक्त महसूस करता हूं। यही कारण है कि सबकुछ नैचरल रखता हूं। जब मैं पिछले साल गांधी के लिए चंपारण तक मार्च कर रहा था तब लोग वहां दूर-दूर गांव से आते, मेरे पांव तक धोते। हमसे कहते कि समाज को मेरी जरूरत है। गांधी के अहिंसा भाव से निकली बात लोगों के दिलों में वहां तक पहुंची थी जहां कोई हिंसा नहीं पहुंच सकती। मैंने अपने अनुभव से इसे महसूस किया है कि आज की तारीख में गांधीवादी अहिंसक आंदोलन अधिक प्रभावी और प्रासंगिक हो गए हैं।

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जातिगत या दूसरे स्वार्थ जनित आंदोलन को हम सामाजिक आग्रह नहीं कह सकते हैं। कुछ साल पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन को जो असर हुआ, हाल के सालों में शायद ही किसी आंदोलन का हुआ हो। वह भी गांधीवादी अहिंसक आंदोलन से ही प्रभावित था। आज तक हिंसक आंदोलन अपने उद्देश्य तक नहीं पहुंच सके हैं और अगर पहुंचते भी हैं तो बहुत नुकसान कर। गांधी का अहिंसा पाठ अजर-अमर है।

किसी भी जाति, धर्म, देश को एक पहचान से नहीं देखा जा सकता। पहचान हमेशा व्यापक और कल्याणकारी होती है। मुझे लगता है कि अगर आज गांधी होते तो वह कभी इस बात से सहमत नहीं होते कि पाकिस्तान से आतंकी अजेंडा चलाया जा रहा है। उनका मानना था कि हर जगह अच्छे और बुरे लोग होते हैं। पाकिस्तान में भी हर तरह के लोग हैं। गांधी दुनिया में कहीं भी होने वाली हिंसा के खिलाफ थे, फिर चाहे वह परिवार में हो, समाज में हो या अपने देश में हो। वह किसी धर्म विशेष, जाति या देश को लेकर नहीं सोचते थे, बल्कि पूरे विश्व को लेकर सोचते थे। गांधी का सपना था कि अगर भारत आजाद होगा तो दुनिया में जहां कहीं भी गुलामी होगी, भारत उसके लिए काम करेगा। ऐसा हुआ भी। गांधी गलतियों से सीखते हैं, उनकी खासियत है कि वह गलतियां करते हैं तो उसे स्वीकारते भी हैं और उसका प्रायश्चित भी करते हैं। वह अगर आज होते तो आतंकवाद के संदर्भ में यही बात करते। गांधी एक ऐसी जीवनशैली अपनाने की बात करते हैं, जिसमें समस्या का समाधान व्यक्ति में ना होकर समष्टि में होता हो। गांधी जड़ों पर काम करने में यकीन रखते हैं, ताकि ऐसी चीजें पैदा ही ना हों।

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वह कहते थे- ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं, क्योंकि पापी को खत्म कर दोगे तो भी पाप बचा रहेगा। लेकिन पाप खत्म कर दोगे तो पापी पैदा ही नहीं होंगे।’ गांधी बदलाव की बात करते हैं, गांधी चिंतन, मनन और भाव की बात करते हैं। वह लोगों का मन बदलने की बात करते हैं, उनका दिलो-दिमाग बदलना चाहते हैं। आतंकवाद को नए नजरिए से देखने की बात करते। जब डाकू बदल सकता है तो आतंकी क्यों नहीं। गांधी दिलों पर राज करना चाहते थे। गांधी अगर आज होते तो वह कहते कि अगर आतंकवाद को नेस्तनाबूद करना है तो वह गोली से नहीं, बल्कि प्रेम से होगा। गांधी बदले की नहीं, बदलाव की बात करते हैं। वह अंग्रेजों से भी बदला नहीं लेना चाहते। अंग्रेजों से कहते हैं कि तुम हमारे यहां रहो, लेकिन हमें लूटो मत, शोषण न करो, हमारे बनकर रहो। गांधी मानते थे कि हर व्यक्ति को अपने सत्य की पहचान खुद करनी होगी। गांधी आतंक की राह पर चलने वाले से कहते कि अपने सत्य को पहचानो, अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनो, किसी और की सच पर मत चलो।

भगत सिंह की फांसी रुकवाने के लिए गांधी जी ने प्रयास किये थे या नहीं :-

गांधी ने तो खुद का भी कभी बचाव नहीं किया। हमेशा कहा कि अगर मैंने जुर्म किया है तो मैं उसकी सजा भुगतने के लिए तैयार हूं। चौरी-चोरा कांड की भी पूरी जिम्मेदारी खुद पर लेकर उन्होंने कहा था कि मुझे सजा दे दो। अगर कुछ लोग यह सवाल उठाते हैं कि गांधी ने भगतसिंह को बचाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किया तो इसके जवाब में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने तो खुद को भी बचाने का कभी प्रयास नहीं किया।

हमें अपने काम की कीमत चुकाने को तैयार रहना चाहिए
वह हमेशा सोचते थे कि जो भी हम काम करें उसकी कीमत चुकाने के लिए हमें सहज तैयार रहना चाहिए। गांधीजी जब जेल में थे तभी भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी थी। 26 जनवरी 1931 को गांधीजी रिहा हुए। उसके बाद मार्च में गांधी-इरविन समझौता हुआ। इसके बारे में कहा गया कि गांधीजी को यह समझौता तोड़ देना चाहिए था। भगतसिंह और उनके साथियों की फांसी की सजा को रुकवाने को पूर्व शर्त बना देनी चाहिए थी लेकिन यह स्पष्ट रूप से गांधी-इरविन समझौते में था कि हिंसक क्रांतिकारी गतिविधियों में जो लोग शामिल हैं, उन्हें नहीं छोड़ा जाएगा। जो अहिंसक सत्याग्रही थे गांधी-इरविन समझौते के तहत ऐसे करीब 90 हजार राजनीतिक कैदियों की रिहाई हुई।

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गांधीजी क्या भगत सिंह को बचा सकते थे? यह पूछने के साथ ही यह भी पूछना पड़ेगा कि गांधीजी उस वक्त थे कौन। गांधीजी न तो वह भारत के वायसराय थे, न ही राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री जैसे किसी संवैधानिक पद पर थे। गांधीजी तो अंग्रेजों की सरकार से खुद ही लड़ने वाले एक स्वाधीनता सेनानी थे। यह जरूर है कि उस पूरे आंदोलन के वह सर्वोच्च नेता थे और उनकी बातों का सरकार और समाज के ऊपर व्यापक प्रभाव पड़ता था। लेकिन अंग्रेज सरकार किसी भी तरह चाहती थी कि स्वाधीनता संग्राम की विभिन्न धाराओं के बीच मतभेद बढ़े। यह एक-दूसरे के विरुद्ध हो जाएं। अंग्रेज सरकार चाहती थी कि किसी न किसी तरह गांधीजी की भूमिका को संदिग्ध बनाकर उनकी लोकप्रियता को भी कम किया जा सके। सुभाष चंद्र बोस ने ‘इंडियन स्ट्रगल’ में बहुत साफ शब्दों में लिखा है कि गांधीजी अपनी ओर से जितना प्रयास भगत सिंह को बचाने के लिए कर सकते थे उन्होंने किया। जब तक इरविन ने फांसी के ऑर्डर पर दस्तख्त नहीं किए थे, उससे पहले गांधीजी ने तीन चिट्ठियां लिखी थीं। उसमें उन्होंने इरविन को कहा कि फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दीजिए। 18 फरवरी, 19 मार्च और 23 मार्च 1931 को ये चिट्ठियां लिखी। इरविन ने यह नहीं माना। वह चाहते थे कि क्रांतिकारियों को फांसी हो जाए। सारा आरोप गांधी और अन्य लोगों पर लगे और युवा असंतुष्ट हो जाएं।

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