आइये जानते है क्या है पुरी जगन्नाथ मंदिर स्थापना की कथा
1 min readआज प्रभु जगन्नाथ की रथ यात्रा है. जगन्नाथ धाम हिंदू धर्म व पुराणों के आधार पर चार धामों में से एक है. जगन्नाथ धाम को धरती पर वैकुंठ भी कहा गया है. आपको बता दें कि यहां भगवान विष्णु के अवतार प्रभु जगन्नाथ विराजमान हैं.
जगन्नाथ धाम भाई-बहन के पवित्र रिश्तों का बखान करती है. जगन्नाथ धाम में भगवान श्रीकृष्ण, उनकी बहन सुभद्रा और उनके बड़े भाई बलराम के साथ मौजूद हैं.
वहीं रथयात्रा निकालने की परंपरा की बात करें तो पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्नान पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ का जन्मदिन होता है. इस दिन भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलराम औप बहन सुभद्रा को रत्न सिंहासन से उतारकर मंदिर के समीप बने एक मंडप में ले जाया जाता है.
यहां इन्हें स्नान कराया जाता है. यह स्नान 108 कलशों के माध्यम से कराया जाता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार स्नान के बाद भगवान का शरीर तपने लगता है. इसके बाद इन्हें एक खास कक्षा में रखा जाता है. यहां भगवान 15 दिनों तक रहते हैं.
इस दौरान प्रभु के कक्षा में जाने की अनुमति सिर्फ मंदिर के प्रमुख सेवकों और वैद्यों को ही होती है. इनके अलावा विशेष कक्षा में जाने की अनुमति किसी को नहीं दी जाती है. इस बीच भगवान जगन्नाथ के प्रतिनिध अलारनाथ की प्रतिमा को स्थापित कर पूजा पाठ शुरू की जाती है.
15 दिन विशेष कक्ष में भगवान समय बिताकर जब बाहर निकलते हैं तो वह लोगों को दर्शन देते हैं. इसे नव यौवन नैत्र उत्सव कहा जाता है. इसके बाद भगवान जगन्नाथ बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलराम के साथ बाहर आते हैं और अपने रथ पर विराजमान होकर शहर का भ्रमण करने निकलते हैं.
इस मंदिर की स्थापना मालवा के राजा इंद्रदयुम्न ने कराया था. इनके पिता का नाम भारत और माता का नाम सुमति था. पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा को एक बार सपने में भगवान जगन्नाथ के दर्शन हुए थे.
सपने में भगवान ने राजा से अपनी एक मूर्ति को नीलींचल पर्वत की गुफा में ढूंढने और मूर्ति को एक मंदिर बनवाकर स्थापित करने को कहा. इस मूर्ति को भगवान ने नीलमाधव बताया.
इसके बाद राजा अपने सेवक के साथ नीलांचल पर्वत की गुफा में भगवान की मूर्ति ढूंढने निकल पड़ते हैं. राजा के साथ जो लोग निकले थे उनमें से एक ब्राह्मण का नाम विद्यापति था. विद्यापति को सबर कबीले के लोगों के बारे पता था जो नीलमाधव की पूजा करते हैं.
विद्यापति को यह भी मालूम था कि भगवान नीलमाधव की प्रतिमा को गुफा के अंदर सबर कबीले के लोग छिपा कर रखते हैं. इस कबीले का मुखिया विश्ववसु भगवान का उपासक था. हालांकि भगवान की मूर्ति पाने के लिए मुखिया का आदेश सर्वोपरि था और मुखिया भगवान का उपासक था.
वह किसी भी हाल में भगवान की मूर्ति देने को तैयार न होता. इस कारण विद्यापति ने चालाकी से मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया. अपनी पत्नी के सहारे विद्यापति उस गुफा तक पहुंचने में कामयाब हो गए जहां भगवान नीलमाधव की मूर्ति रखी गई थी. विद्यापति ने नीलमाधव की मूर्ति को चुरा लिया और राजा को सौंप दिया.
कहते हैं कि विश्ववसु अपने भगवान की मूर्ति के चोरी होने से काफी दुख हुआ. भगवान को भी काफी दुख हुआ कि उनका उपासक दुखी है. इस कारण नीलमाधव वापस गुफा में लौट गए और राजा इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वह एक दिन उनके पास जरूर लौंटेंगे लेकिन राजा उनके लिए एक मंदिर बनवा दे.
इसके बाद राजा ने मंदिर बनवाकर भगवान से विराजमान होने के लिए कहा लेकिन तभी भगवान ने कहा कि द्वारका से तैरकर पुरी की तरफ आ रहे बड़े से पेड़ के टुकडे़ को लेकर आओ. इससे तुम मेरी मूर्ति बनाओ. राजा व उनके लोग फौरन पेड़ के टुकड़े के तलाश में निकल पड़े.
लकडी का टुकड़ा उन्हें मिल गया लेकिन वो उठाकर लाने में असक्षम थे. तभी राजा को कबीले का मुखिया विश्ववसु याद आया. राजा ने विश्ववसु की सहायता ली. विश्ववसु लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए.
श्रीकृष्ण के आदेशानुसार राजा ने इस काम के लिए काबिल बढ़ई की तलाश शुरू की. कुछ दिनों में एक बूढ़ा ब्राह्मण उन्हें मिला और इस विग्रह को बनाने की इच्छा जाहिर की.
लेकिन इस ब्राह्मण ने राजा के सामने एक शर्त रखी कि वह इस विग्रह को बंद कमरे में ही बनाएगा और उसके काम करते समय कोई भी कमरे का दरवाज़ा नहीं खोलेगा नहीं तो वह काम अधूरा छोड़ कर चला जाएगा.
शुरुआत में काम की आवाज़ आई लेकिन कुछ दिनों बाद उस कमरे से आवाज़ आना बंद हो गई. राजा सोच में पड़ गया कि वह दरवाजा खोलकर एक बार देखे या नहीं. कहीं उस बूढ़े ब्राह्मण को कुछ हो न गया हो.
इस चिंता में राजा ने एक दिन उस कमरे का दरवाज़ा खोल दिया. दरवाज़ा खुलते ही उसे सामने अधूरा विग्रह मिला और ब्राह्मण गायब था. तब उसे अहसास हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं बल्कि खुद विश्वकर्मा थे. शर्त के खिलाफ जाकर दरवाज़ा खोलने से वह चले गए.
उस वक्त नारद मुनि पधारे और उन्होंने राजा से कहा कि जिस प्रकार भगवान ने सपने में आकर इस विग्रह को बनाने की बात कही ठीक उसी प्रकार इसे अधूरा रखने के लिए भी द्वार खुलवा लिया.
राजा ने उन अधूरी मूरतों को ही मंदिर में स्थापित करवा दिया. यही कारण है कि जगन्नाथ पुरी के मंदिर में कोई पत्थर या फिर अन्य धातु की मूर्ति नहीं बल्कि पेड़ के तने को इस्तेमाल करके बनाई गई मूरत की पूजा की जाती है.